जनसैलाब को वोट में तब्दील करने की कवायद

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वंचितों को मायावती से उम्मीद

कमल जयंत
नौ अक्टूबर को उत्तर प्रदेश की राजधानी लखनऊ में हुई बहुजन समाज पार्टी की रैली ने एक बार फिर साफ कर दिया कि आज भी दलित-शोषित समाज बसपा के साथ है और उसे पार्टी प्रमुख मायावती के मैदान में उतरने का इंतजार है। सिर्फ चुनावी मैदान में नहीं बल्कि उसकी परेशानियों और उसके खिलाफ हो रहे पुलिसिया, सरकारी उत्पीडऩ से उसे निजात दिलाने के लिए संघर्ष के मैदान में उतरने का बेसब्री से इंतजार है।

हालांकि बसपा प्रमुख ने राजधानी में हुई सफल रैली के बाद पार्टी कार्यालय में बैठकों का सिलसिला जारी रखा है। २००७ की तरह एक बार फिर भाईचारा कमेटियों का गठन शुरू कर दिया है। इस बार वे बामसेफ के कार्यकर्ताओं की भी अलग से बैठक कर रहीं हैं। पार्टी की निगाह दलित-मुस्लिम गठजोड़ पर है। इसीलिए उन्होंने २९ अक्टूबर २०२५ को मुस्लिम भाईचारा कमेटी की बैठक बुलायी और दलित व मुस्लिम समाज को एकजुट होकर काम करने के निर्देश दिये। दरअसल बसपा नेतृत्व यूपी में दलित-मुस्लिम गठजोड़ के सहारे राज्य के लगभग चालीस फीसदी मतदाताओं को अपने साथ जोडऩा चाहता है।

पार्टी अगर अपने इस मकसद में कामयाब हुई तो सीट के लिहाज से उसे वह अपेक्षित सफलता जरूर न मिले, लेकिन वह यूपी में इंडिया गठबंधन यानि सपा-कांग्रेस का सियासी गणित जरूर बिगाड़ देगी। हालांकि इससे धर्मनिरपेक्ष वोटों में विभाजन होगा और इसका फायदा निश्चित तौर पर भाजपा को ही मिलेगा। वैसे यूपी में बसपा वोट और सीट दोनों ही लिहाज से सबसे कमजोर स्थिति में हैै। मौजूदा समय में यूपी विधानसभा में बसपा का एक ही सदस्य है, जबकि विधानसभा और लोकसभा में सदस्यों की संख्या शून्य है। पिछले साल हुए लोकसभा चुनाव में यूपी में बसपा को महज नौ प्रतिशत वोट मिले थे और उसे यहां से एक भी सीट नहीं मिली थी। अन्य राज्यों में भी पार्टी सीट के लिहाज से शून्य पर ही रही। रैली में जुटी भीड़ से पार्टी कार्यकर्ता और नेता दोनों ही उत्साहित हैं, लेकिन इस भीड़ में चुनाव तक पार्टी के पक्ष में माहौल बनाये रखना बड़ी चुनौती होगी।

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रैली में जुटी भीड़ बसपा के साथ मजबूती से जुड़ी रहे, इसके लिए खुद मायावती को दलित उत्पीडऩ के मुद्दों पर सडक़ पर उतरना होगा, लेकिन ऐसा होता दिख नहीं रहा है। हाल ही में ६९ हजार शिक्षक भर्ती मामले में अन्याय का शिकार दलित और पिछड़ा वर्ग के अभ्यर्थियों ने मायावती के आवास के बाहर प्रदर्शन किया और उनसे आग्रह किया कि वे उनके इस मुद्दे को प्रमुखता से उठाएं ताकि उन्हें न्याय मिल सके, लेकिन मायावती ने इस मुद्दे को लेकर किसी भी तरह की कोई पहल नहीं की है। लखनऊ में बुजुर्ग दलित को मंदिर में पेशाब चटवाने का मामला हो या रायबरेली में हरिओम बाल्मीकि की भीड़ द्वारा पीट-पीटकर हत्या करने का मामला हो, बसपा नेतृत्व इन मुद्दों पर अभी शांत है। देश के प्रधान न्यायाधीश जस्टिस गवई जो दलित समाज से हैं, उनपर जूता फेंकने के निंदनीय कृत्य पर भी बसपा नेतृत्व का मौन दलित समाज को कहीं न कहीं जरूर अखर रहा है।

फिलहाल रैली में उमड़े जनसैलाब को वोट में परिवर्तित करना बसपा के सामने एक बड़ी चुनौती है।
पार्टी ने बहुजन नायक कांशीराम जी के उन्नीसवें महानिर्वाण दिवस पर रैली का आयोजन किया इसका मकसद यूपी चुनाव में वोट प्रतिशत बढ़ाने के साथ ही सीटों में भी इजाफा करना है। अब देखना यह होगा कि बसपा अकेले दम पर अपने वोट प्रतिशत और सीटों में इजाफा कौन सी रणनीति बनाकर कर पाएगी। २००७ के विधानसभा चुनाव को छोड़ दिया जाए तो बसपा अपने दम पर कभी भी सत्ता हासिल नहीं कर पायी है। हां लगभग अठारह साल बाद पार्टी की ओर से आयोजित रैली को मिली सफलता से पार्टी नेतृत्व व कार्यकर्ताओं के साथ ही समर्थकों के हौसले जरूर बुलंद हैं।

ये कार्यकर्ता और समर्थक अपने बुलंद हौसलों के साथ चुनाव में पार्टी को मजबूती के साथ सहयोग करेंगे। इससे यह तो साफ है कि बहुजन समाज का एक बड़ा तबका जो भाजपा के सनातनी और मनुवादी विचारधारा के खिलाफ यूपी में इंडिया गठबंधन यानि कांग्रेस-सपा के साथ जा रहा था, उसमें दलित बसपा में लौटेगा, हालांकि अभी यह साफ तौर पर नहीं कहा जा सकता। क्योंकि बसपा प्रमुख ने अपनी रैली जिसे राज्य में होने वाले चुनाव पूर्व अपनी ताकत दिखाने का कार्यक्रम माना जा रहा है। इस रैली में मायावती जी ने जिस तरह से राज्य की योगी सरकार के प्रति आभार व्यक्त किया, उससे दलित समाज विचलित भी है, क्योंकि दलितों की सारी लड़ाई और आंदोलन सनातनी व्यवस्था और मनुवाद के खिलाफ रहती है और ये वर्ग भाजपा को इन वर्गों का पोषक मानने के साथ संविधान विरोधी भी मानता है।

हालांकि मायावती जी ने योगी सरकार के प्रति आभार जताने को लेकर कई बार स्पष्ट किया है कि उन्होंने स्मारकों के रखरखाव व साफ सफाई की व्यवस्था काफी दुरुस्त रखी, जिसकी वजह से उनके प्रति आभार जताया गया है। लेकिन योगी सरकार की तारीफ पर मायावती जी भी घिरती नजर आ रहीं हैं। सियासी विश्लेषकों का मानना है कि भाजपा की तारीफ का बसपा को चुनाव में नुकसान हो सकता है। क्योंकि दलित समाज ही गैरबराबरी की व्यवस्था लागू करने के पक्षधर दल का शुरू से ही विरोध करते रहे हैं और बसपा का गठन भी इसी व्यवस्था के विरोध के लिए हुआ था और दलित समाज इसी सामाजिक अव्यवस्था के खिलाफ लडऩे के लिए पूरी मजबूती के साथ बसपा से जुड़ा था। लेकिन बसपा प्रमुख ने खुद को बहुजन समाज की समस्याओं और उनके आंदोलनों से दूर रखने के कारण ये वर्ग काफी हदतक बसपा से हटकर संविधान बचाने की लड़ाई लड़ रहे सपा-कांग्रेस की तरफ शिफ्ट भी हुआ है।

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