८५ फीसदी आबादी के लिए खुद को देश का नागरिक साबित करने की चुनौती
कमल जयंत
अल्पसंख्यकों और खासतौर पर दलितों व मुस्लिमों पर हो रहे अन्याय और अत्याचार के खिलाफ लोकतांत्रिक तरीके से सामाजिक और कानूनी लड़ाई लड़ रही सामाजिक संस्था आसरा की कमान मास्टर मोहम्मद शाहिद को सौंपी गयी है। वे इस संस्था के महासचिव हैं। मास्टर शाहिद का कहना है कि देश में और खासतौर पर पूरे उत्तर भारत में दलितों और मुस्लिमों का देश आजाद होने के बाद से ही उत्पीडऩ होता रहा है। हालांकि इन वर्गों का पिछली सरकारों में इतना ज्यादा भी उत्पीडऩ नहीं हुआ कि इन्हें अपना सामाजिक और धार्मिक वजूद बचाने के लिए मुखर होकर संघर्ष करना पड़ता। मौजूदा सरकार में तो अल्पसंख्यकों और दलितों के साथ ही पिछड़ा वर्ग व अति पिछड़ा वर्ग के मौलिक अधिकार ही छीनने की कोशिश हो रही है। देश की ८५ फीसदी आबादी के सामने खुद को भारत का मूलनिवासी साबित करने की चुनौती है। इन वर्गों को मतदान देने के मौलिक अधिकार से वंचित रखने की साजिश की जा रही है।
भारत का निर्वाचन आयोग मतदाता होने के लिए जो शर्तें रख रहा है, उसके मुताबिक आम शहरी को खुद को भारत का नागरिक साबित करने के लिए पर्याप्त साक्ष्य देने होंगे। इन साक्ष्यों के अभाव में ये वर्ग खुद को देश का नागरिक नहीं साबित कर पाएगा और उसे वोट देने के अधिकार से विरत कर दिया जाएगा। यहां सवाल यह नहीं है कि ये वर्ग खुद को देश का नागरिक नहीं सिद्ध कर पाया तो इसे केवल वोट देने के अधिकार से ही वंचित किया जाएगा। भारत का नागरिक न होने की स्थिति में इसे अपने ही देश से बेदखल होना पड़ेगा या दोयम दर्जे का नागरिक बनकर

रहना पड़ेगा, जिसे भारतीय संविधान में प्रदत्त अधिकारों से वंचित रहना पड़ेगा।
कुल मिलाकर इन वर्गों को एक बार फिर से गुलाम बनाने की तैयारी चल रही है। उत्तर प्रदेश में निर्वाचन आयोग जो एसआईआर करा रहा है और उसमें मतदाता बनने के लिए जो शर्तें रखी गयीं हैं, उनमें आधार कार्ड को मान्य नहीं माना गया है। बिहार में तो चुनाव है जिसके कारण सभी सियासी दलों ने सुप्रीम कोर्ट में आयोग के इस फैसले का विरोध किया और सुप्रीम कोर्ट के निर्देश पर आयोग को बिहार में मतदाता बनने के लिए आधार कार्ड को मान्यता देनी पड़ी, लेकिन यूपी में कोई सियासी दल या सामाजिक संगठन इस दिशा में कोई पहल नहीं कर रहे हैं। इन्हीं तमाम मुद्दों पर मास्टर मोहम्मद शाहिद बरकाती से विस्तार से बातचीत हुई।
सवाल- वोट का अधिकार पाने के लिए निर्वाचन आयोग एसआईआर के तहत जो शर्तें रख रहा है, उससे अल्पसंख्यकों को क्या दिक्कत होगी।
जवाब- एसआईआर के नियमों से केवल अल्पसंख्यकों या मुस्लिमों को ही नहीं बल्कि देश के ८५ फीसदी बहुजन समाज जिसमें दलित, अति पिछड़ा और पिछड़ा वर्ग भी शामिल है, इन्हें सबसे ज्यादा दिक्कत होगी। क्योंकि आयोग एसआईआर के तहत जो डाक्यूमेंट (कागजात) मांग रहा है। उनमें से अधिकांश कागजात इन वर्गों के पास नहीं हैं। इन वर्गों में बमुश्किल प्वाइंट जीरो-जीरो आधा फीसदी लोगों के पास भी पासपोर्ट नहीं है। गरीब और खेतिहर मजदूर इस वर्ग के पास न तो अपने निजी मकान हैं और न ही खेती। ऐसे में ये वर्ग खुद को यहां का शहरी (नागरिक) कैसे साबित कर पाएगा। बिहार में तो सुप्रीम कोर्ट के दबाव में आयोग ने आधार कार्ड को एसआईआर में शामिल कर लिया, लेकिन यूपी में मतदाता सूची में शामिल होने के लिए निर्वाचन आयोग एसआईआर कराने जा रहा है, उसमें आधार कार्ड को नहीं शामिल किया है। ऐसे में एक बड़ी आबादी अपने वोट देने के अधिकार से महरूम हो जाएगी।
दलितों और मुस्लिमों को वोट देने के बुनियादी अधिकार से महरूम रखने की हो रही साजिश
सवाल-एसआईआर में आधार कार्ड शामिल कराने के लिए आपकी संस्था क्या कर रही है।
जवाब- दरअसल बिहार में एसआईआर को लेकर जो कवायद हुई है उससे पूरे देश का नागरिक यह तो समझ गया है कि उसे मतदाता बनने के लिए किन-किन कागजात की जरूरत पड़ेगी और वह इस दिशा में काम भी कर रहा है। लेकिन सवाल यह नहीं है कि वह खुद को मतदाता सूची में शामिल कराने के लिए अपेक्षित कागजात मुहैया कराये। सवाल यह है कि वोट देना तो सभी नागरिकों का मौलिक अधिकार है। आखिर आयोग इस मौलिक अधिकार से गरीबों, शोषितों और वंचित समाज को बेदखल क्यों करना चाह रहा है। आयोग ने एसआईआर के तहत इस तरह की शर्तें रखी हैं, जिसमें कोई भी व्यक्ति अगर मतदाता बनना चाहता है तो उसे पहले भारत का नागरिक होने का प्रमाण देना होगा। केवल इतना कहने या पास-पड़ोस की गवाही से नहीं माना जाएगा कि अमुक व्यक्ति और इसका परिवार कई पीढिय़ों से इसी गांव में रह रहा है। इसके लिए उसे इस बात का साक्ष्य यानि कागजात देने होंगे जिससे यह साबित हो सके कि वह अमुक गांव या शहर का मूल निवासी है।
सवाल- यूपी में २०२७ में होने वाले विधानसभा चुनाव में संविधान विरोधी ताकतों को शिकस्त देने के लिए आपका संगठन क्या कर रहा है।
जवाब- हमारा संगठन राज्य के सभी जिलों में ८५ फीसदी बहुजन समाज को एकजुट करने का अभियान चला रहा है। अगला चुनाव यूपी में संविधान समर्थकों और सनातन समर्थकों के बीच होगा। ऐसे में बहुजन समाज के लोगों की जिम्मेदारी बनती है कि वे गैरबराबरी के आधार पर देश में सामाजिक व्यवस्था स्थापित करने वाली सनातनी शक्तियों के खिलाफ एकजुट होकर उन्हें सत्ता से बाहर का रास्ता दिखाएं। इसके लिए एक बार फिर बहुजन नायक कांशीराम जी और समाजवादी नेता मुलायम सिंह यादव जी की तरह एकजुट होना पड़ेगा। तभी इन संविधान विरोधी शक्तियों को शिकस्त दी जा सकती है। संविधान समर्थक सभी दलों को एकजुट करने की जिम्मेदारी इंडिया गठबंधन के नेताओं की है। कांग्रेस को इस गठबंधन में बसपा को भी लाने का प्रयास करना होगा। क्योंकि जबतक बहुजन समाज को न्याय दिलाने की बात करने वाले दल एकजुट नहीं होंगे, तबतक संविधान विरोधी सनातनी विचारधारा के लोगों को सत्ता से बाहर का रास्ता नहीं दिखाया जा सकता है।
सवाल- यूपी के विधानसभा चुनाव में बसपा की क्या स्थिति रहेगी।
जवाब- देखिए, अकेले चुनाव मैदान में उतरने से तो बसपा की स्थिति खराब ही होगी। सही मायने में संविधान विरोधी ताकतों को हराने के लिए बसपा प्रमुख को भी इंडिया गठबंधन में आना होगा। क्योंकि यूपी में जो राजनीतिक खिचड़ी पक रही है, उस खिचड़ी में बसपा की भूमिका नमक की है। एक पतीला खिचड़ी एक चम्मच नमक के बिना बेकार है। उसी तरह बसपा का भी विपक्ष की राजनीति में महत्व है। ऐसी स्थिति में कांग्रेस नेतृत्व को पहल करके बसपा को भी इंडिया गठबंधन से जोडऩे का प्रयास करना होगा। तभी बहुजन समाज और पीडीए की बात करने वाले लोग सनातनी विचारधारा को चुनाव में शिकस्त दे पाएंगे। यह सही है कि बसपा की रैली में जुटी भारी भीड़ से पार्टी के कार्यकर्ता काफी उत्साहित हैं, लेकिन बसपा के अकेले विधानसभा चुनाव लडऩे का फायदा तो बसपा को भी नहीं मिलेगा, हां इसका नुकसान इंडिया गठबंधन को जरूर हो सकता है। अगर ऐसा होता है तो इसका सीधा फायदा सनातनी विचारधारा को देश में लागू करने वाले दल को ही होगा और ये वही दल है जो सत्ता में रहते हुए भी संविधान का विरोध करता है।